अर्जुन ने पूछा इस प्रकार जो भक्त सदैव योग युक्त होकर आपकी उपासना विधिपूर्वक करते है और जो वे अव्यक्त पर ब्रह्मा को भजते है, इन दोनों में कौन से योगी श्रेष्ठ है| श्री भगवान बोले जो मेरे विषय मन लगा कर परम श्रद्धापूर्वक मुझको भजते है वे उत्तम योगी है मैं यह मनाता हूँ| परन्तु जो इन्दिर्यों को सयम करके सर्वत्र समदृष्टि रखने वाले सब प्राणियों के हित में लगे हुए अकथनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापी, अचिंतनीय, निर्विकार, अचल ध्रव अक्षर का भजन करते है वे भी मुझे ही प्राप्त होते है, अव्यक्त में जिन का चित आसक्त है, वह कष्ट अधिक पाते है| हे पार्थ! जो प्राणी अपने सब कर्मों को मेरे अर्पण करके मेरी शरण आकर अनन्य भक्ति से मेरा ध्यान करते और पूजते है उन शरण में आय हुए भक्तों का मैं थोड़े ही समय में मृत्यु युक्त संसार सागर से उद्धार कर देता हूँ| मुझमें ही मन रखी मुझमें ही बुद्धि रखो, तब मुझमे ही निवस करोगे इसमें कुछ संदेह नहीं | हे धनञ्जय यदि इस प्रकार तुम मुझमे अपने चित को करने में समर्थ न हो तो अभ्यास योग द्वारा हमारे पाने के लिए बारम्बार यत्न करो| यदि अभ्यास भी न कर सको तो मेरे उदेश्य से व्रत आदि ही करो, यदि मेरे लिए तुम कर्म करोगो तो भी तुम्हें मुक्ति प्राप्त होगी और यदि ऐसा भी न कर सको तो मन को रोक कर अनन्यभाव से मेरे शरण आओ, और फल की आशा छोड़कर कर्म करो| क्योँकि अभ्यास से ज्ञान उत्तम है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, और ध्यान के कर्मों के फल का त्यागना श्रेष्ठ है, त्याग से शांति प्राप्त होती है|
जो किसी से द्वेष नहीं करता, सब का मित्र है, दयाधरी है, ममता और अहंकार जिसमे नहीं, सुख दुःख को जो जानता है क्षमावान, संतोषी है सिथर चित इन्द्रियों को वश में रखता है दृंढ निश्चयवन है मुझमे अपना मन और बुद्धि लगाए हुए है ऐसा मेरा भक्त मुझको प्रिय है| जिसमे न लोगों को भय है न लोगों से जो डरता है ऐसा हर्ष दुष्टों से भय और विषद से रहित है वह मेरा प्रिय है| जो कुछ मिले उसी में संतुष्ट, पवित्र, पक्ष, निष्पक्ष दुःख रहित फल की आशा त्याग कर कर्म करने वाला ऐसा जो मेरा भक्त है वह मुझे प्रिय है| जो लाभ से प्रसन्न न हो, किसी से द्वेष न करे, इष्ट पदार्थ के नष्ट होने से दुखी न हो, किसी वस्तु की इच्छा न करे, शुभ और अशुभ दोनों का त्यागी वह भक्त मेरा प्रिय है| जिसको शत्रु और मित्र, मान और अपमान, सर्दी और गर्मी, दुःख और सुख, समान है जो वासना से रहित है जो निन्दा और स्तुति को समान जनता है मौनी हो, जो मिले उसी में संतुष्ट जो यह नहीं समझता की यह मेरा है, जो भक्तिमान है वह मेरा पप्यारा है| पर जो मुझमे श्रद्धा करके मुझे मानकर इस अमृत के समान कल्याण कारक धर्म का आचरण मेरे उपदेशानुसार करते है वे मुझको अत्यंत प्रिय है |
श्री भगवान बोले हे लक्ष्मी! अब बारहवां अध्याय का माहात्म्य सुनो दक्षिण देश में एक सुखानंद नामक राजा रहता था| जिसके नगर में एक अवनत नाम लंपट रहता था| एक गणिका से उसकी प्रीति थे वह दोनों एक देवी के मंदिर में जाके मंदिरा पान किया करे मांस खावे भोग भोगे| जो कोई पूछे तुम यहाँ क्या करता हो तो कहे हम यहां रहते है देवी के सेवा करते है झूठ कह देवे उसी मंदिर में एक ब्रह्मण ने देवी की स्तुति करि प्रसन्न हुई| कहा वर मांग जो मांगेगा वह दूंगी उन्होंने धन, संतान, सुख मांगा, देवी ने कहा हे ब्रह्मण अवश्य कर तुझे संतान सुख दूंगी पर एक बात कर पहले इन दोनों का उद्धार करले तब ब्रह्मण ने तब श्री नारायण जी का तप किया, भगवान जी प्रसन्न हुए श्री नारायण जी स्वंय गरुण पर सवार हो के आय और कहा तेरी क्या कामना है| ब्राह्मण ने पूछा दोनों का उद्धार कैसे हो श्री नारायण जी ने कहा हे ब्राह्मण! गीता जी के बारहवां अध्याय का पाठ सुनाओ तो उन दोनों का उद्धार होगा| तब उस विप्र ने भगवान की स्तुति कर धन्यवाद किया तब विप्र ने दोनों गणिका और लंपट को बैठाकर गीता जी के बारहवां अध्याय का पाठ सुनाया सुनते ही उन दोनों की देहदेवी हुई और बैकुण्ड को गए यह देखकर देवी प्रसन्न हुई| विप्र को कहा हे पंडित! आज से मेरा नाम वैष्णव देवी हुआ इस पाठ को सुनकर ऐसे अकर्मी तर गए इस नगरी का राज्य तुमको दिया|इतना कह कर अन्तर्ध्यान हुई, तो विप्र घर गया| उस राजा के संतान न थी, राजा ने उस विप्र को बुलाया राज्य दे कर आप तप करने को गया, वन में विरक्त होकर रहा और विप्र राज्य करने लगा| श्री नारायणजी ने कहा हे लक्ष्मी ! यह गीता जी के बारहवां अध्याय का माहात्म्य है जो मैंने कहा और तुमने सुना है|