भागवत गीता सातवां अध्याय

भागवत गीता सातवां अध्याय

Posted By Admin on Wednesday August 17 2022 84
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भागवत गीता सातवां अध्याय

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श्री कृष्ण भगवान बोले हे पार्थ ! मुझमे मन लगा करके मेरे ही आश्रय होकर योगाभ्यास करते हुए मेरे स्वरूप का संशय रहित पूर्णज्ञान होगा सो सुनो विज्ञान के सहित वह पूर्णज्ञान मैं तुम्हें सुनाता हूँ जिसके जानने से तुमको इस लोक में कुछ जानना शेष न रहेगा| सहस्त्रों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले सिद्धों में से जो कोई भी मुझे ठीक से जान पाता है| पृथ्वी , जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह आठ प्रकार की मेरी प्रकृति (माया) है| इस प्रकृति को ( अपरा अचेतन अर्थात ) जड़ कहते है और हे महाबाहो इससे दूसरी प्रकृति चेतन है जिसने सम्पूर्ण जगत धारण किया है| इन्हीं दोनों प्रकृतिओं से सब प्राणी मात्र उतपन्न होते है ऐसा जानो यह प्रकृतियाँ हम ही से उत्पन्न हुई है| इस प्रकार जगत की उत्पति और प्रलय का कारण मैं ही हूँ| हे धनज्जय ! धागे में जिस प्रकार मणि पिरोई जाती है उसी भांति यह संसार मुझमे गुथा हुआ है, मुझसे परे और कुछ भी नहीं है| हे कुंती पुत्र ! जल में रस में मैं ही हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रभा मैं ही हूँ| सब वेदों में प्रणव मैं ही हूँ, आकाश में शब्द तथा पुरुषोंमें जो पौरुष मैं ही हूँ| हे अर्जुन! पृथवी में जो सुगंध है तथा अग्नि में तेज मैं ही हूँ सब प्राणियों में जीवन और तपस्वियों में तप मैं ही हूँ| हे पार्थ ! समपूर्ण प्राणियों में सनातन बीज रूप मुझको ही जानना बुद्धिमानों में बुद्धि रूप और तेजसिवयों में तेज मैं ही हूँ| हे भारत षर्भ ! काम और रोग रहित बलवान पुरुषों में बल और पुरुषों में धर्म के विरुद्ध न जाने वाला काम मैं ही हूँ| जितने सात्विक, राजस, तामस, पदार्थ है वे सब मुझसे ही उत्पन्न हुए है| परन्तु उनमे मैं नहीं रहता हूँ ये मुझमे है| सत्व, रज, तम ये तीनों गुणों के भावों से यह सारा संसार मोहित हो रहा है, इस कारण यह इससे परे मुझ अव्यय परमात्मा को नहीं जानता|मेरी यह गुणमयों और दिव्य मया अत्यंत दुस्तर है| जो मुझको अनन्यभाव से भजते है वे इस माया को पारकर जाते है| जो पापी, मूढ़, नराधम माया ने जिनका ज्ञान हर लिया है और आसुरी भाव ग्रहण किये हुए मुझको नहीं पते है | हे भारत श्रेष्ठ अर्जुन! चार प्रकार के मनुष्य मुझको भजते हैं| दुखिया, जिज्ञासु, ऐश्वर्य, की कामना करने वाला और ज्ञानी, जिनमे सदा मुझमे एकग्र चित और केवल मेरी क्योँकि मैं ज्ञानी को अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझको प्रिय है| यद्यपि से सब भक्त अच्छे है तथापि ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है क्योँकि वह मुजमे ही मन लगाकर मुझको ही सर्वोत्तम गति मान, मेरा ही आश्रय ग्रहण करता है|

 

 

उनके जन्म के अनन्तर ज्ञानी मुझे पा लेता है| ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है सब जगत को वासुदेवमय समझे| अपनी-२ प्रकृति के नियम के अनुसार मनुष्य भिन्न-२ काम वासनाओं से अज्ञान में डूबकर उन फलों की चाहना से अन्य देवताओं के अधीन होकर उनकी उपासना करते है| हे अर्जुन! जो भक्त श्रद्धा पूर्वक जिस-जिस देवता का पूजन किया करते है, उन पुरुषों की उस श्राद्ध को मैं दृढ़ कर देता हूँ | वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता की आराधना करता है, फिर उसको मेरे ही रचे हुए काम फल प्राप्त होते है परन्तु उन अल्प बुद्धि वालों का फल नाशवान है देवताओं के आराधना करने वाले देवताओं को मिलते है और मेरे भक्त जन मुझमे मिल जाते है| मेरे अव्यय (अविनाशी) अत्युत्तम स्वरुप को न जानकर मंद बुद्धि लोग मुझे अव्यक्त को व्यक्त ( देहधारी) मानते है | मैं योग माया से आच्छादित होने के कारण सबको नहीं देखता हूँ उसमे मूढ़ लोग अन्नादि तथा अविनाशी मुझको नहीं जानते| हे अर्जुन ! मैं भूत, भविष्य और वर्तमान के सब प्राणियों को जनता हूँ, पर मुझे कोई भी नहीं जानता| हे भारत ! हे परंतप ! इच्छा और द्वेष  उत्पन्न होने वाले सुख- दुःख आदि दवंद्वों के मोह से जगत के सभी प्राणी भ्रम में फस जाते है| जिन पुण्य आत्माओं के पाप नष्ट हो गए है| वह पुरुष द्व्न्द के मोह से छूटकर दृंढ निश्चय करके मेरी भक्ति करते है| जो मेरा आश्रय लेकर जीवन मरण के दूर करने के अर्थ प्रयत्न करते हैं वे पुरुष पर ब्रह्म आत्मज्ञान और सम्पूर्ण कर्म को जानते है जो आदिभूत, अधिदेव और अधिज्ञ इन सबमे व्यपक मुझे जान जाते है वे समाधिनिष्ठ पुरुष मरण काल में भी मुझको जानते है| 

|| इति || 

सातवें अध्याय का माहत्म्य 

 

श्री नारायण जी बोले -हे लक्ष्मी! अब सातवें अध्याय का महात्म्य सुन| एक पटेल नाम नगर है, जिनमे संकुकण वैश्य रहता था वह व्यापार करने को नगर के बाहर कही को जाता था रास्ते में संकुकण को सर्प ने डसा वह मर गया उसके साथी उसकी दाह क्रिया कर आगे को सिधारे| जब लौटकर घर में आये उसके पुत्र ने पूछा मेरा पिता संकुकण कहाँ है| उन व्यापारियों ने कहा तेरे पिता को सर्प ने डसा था, वह मर गया और यह पदार्थ तेरे पिता का है तू ले ले| एक करोड़ रुपया दिया और उसकी गति कराने को कहा| क्योँकि वह अवगति मारा था| उस बालक ने अपने घर आयकर ब्राह्मणों से पूछा की  सर्प डसे की गति कैसे करानी चाहिए पंडितों ने कहा नारायण बाली करावो उर्द के आते का पुतला बनाया चुनिया चढाई, जैसी विधि किया बहुत ब्राह्मण जिवाये श्रद्धा पिंड पत्तल कराया| बाकि द्रव्य जो रहा चारों भाइयों ने बांटा, एक पुत्र ने कहा जिस सर्प ने मेरे पिता जी को काटा है मैं उसको मरुँगा, उन व्यापारियों से पूछा वह ठौर मुझे बताओ। जहाँ मेरा पिता संकुकण मरा है व्यपारियो ने कहा चल ले चलते है वहां ले जा करके खड़ा किया| देखा तू वहां एक वामी है जिसे कंदलो के साथ खोदने लगा जब छेद बड़ा हुआ वहां से एक सर्प निकला| कहा तू कौन है मेरा घर क्यो खोदता है, उस बालक ने कहा में संकुकण का पुत्र हूँ जिस सर्प ने मेरे पिता को मारा है मैं उसको मरूंगा तब सर्प ने कहा हे पुत्र मैं तेरा पिता हूँ तू मुझे इस अधम देह से छुड़ा और मुझे मत मार, यह मेरा पर्व का कर्म था सो मैंने भोगा| तब पुत्र ने कहा हे पिता कोई यत्न बताओ जिससे मेरा उद्धार हो तब उस सर्प ने कहा हे पुत्र! किसी गीता पाठी ब्राह्मण को घर में भोजन करवा और उसकी सेवा कर उसके आशीर्वाद से मेरा कल्याण होगा| तब उस बालक ने अपने घर और नगर में जितने गीता का पाठ करने वाले थे तिन सब को बुला कर गीता जी के सातवें अध्याय का पाठ कराया और उनको भोजन करवाया| तब उन साधु-ब्रह्मणों ने आशीर्वाद दिया तत्काल वह अधम देह से छूटकर देव देहि पाय विमान पर चढ़कर आकाश मार्ग को जाता हुआ अपने पुत्र को धन्य-धन्य करता बैकुंठ धाम में जा प्राप्त हुआ|

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